मोबाइल के दौर में थम गया 'वो काटा' का शोर, न पहले जैसे पतंगबाज

नजीर अकबरबादी ने आगरा में ही यह शेर लिखा। वो खुद पतंगबाजी के शौकीन थे। वो क्या उस दौर में आगरा की पतंगबाजी कलकत्ता (कोलकाता) तक मशहूर थी। यमुना किनारे बड़े मुकाबले होते थे पतगंबाजों के बीच। वो काटा का शोर मचता था....यह शोर अब खामोश है। न पहले जैसे पतंगबाज हैं, न ही पतंगबाजी का शौक रहा।


शाहगंज के सुनील कर्मचंदानी बताते हैं कि पतंग की बात छिड़ती है तो बचपन याद आ जाता है। इस छत से उस छत पूरी दोपहरी गुजर जाती थी पतंग उड़ाने के लिए ठिकाने ढूंढते थे। छुट्टी का दिन हुआ तो पहुंच जाते थे। अब तो गिनती की पतंगें उड़ती हैं, वे भी मकर संक्रांति के दिन।